A poem which I wrote sometime back .. the thought had been with me like for as long as i can remember.. Tried to get into the mind of a terrorist who does realize his mistake .. but only after everything around him is destroyed ..
तेरा ये जहान, है मेरा भी जहान
थोड़ी तेरी ज़मीन, थोड़ा मेरा आसमा
कोई जुदा नही, सब एक है हम
क्यू समझ नही में पाया ये,
क्यू नही किसी ने बताया ये,
कि तू भी इंसान, में भी इंसान.
था जुदा में तुझसे
फिर भी तुझसा ही तो था.
चंचल और नादान,
इस जहाँ की अठखेलियों से था में बिल्कुल अंजान
फूलो सा कोमल था वो बचपन मेरा
ना परवाह थी कोई, और ना था किसी गम ने मुझे घेरा.
वो माँ का सर सहलाना, देर हुई तो डाँट लगाना.
हँसी की वो गूँजती किल्कारियाँ,
महकती हुई वो सारी फूलवारियाँ
कोई नारंगी, कोई पीला.
कोई गुलाबी, कोई नीला.
हर रंग का फूल खिला करता था हमारे यहाँ
सीधे-साधे थे हम, छोटी-छोटी खुशियों से भरा था सारा जहाँ.
वो दिन भी क्या दिन थे..
जब खेला करते थे हम वो आँख मिचोली का खेल,
याद हे आज भी मुझको, जब,
ऐसे ही इक बार हुआ था उन सौदागरों से मेरा मेल.
खेल खेल में बात हुई
फिर एक अंधेरी रात हुई
दिया ज़मीन का वास्ता,
छीना ज़मीर, और बदला ज़िंदगी का रास्ता
हुआ करती थी चिंगारी मुझमे एक,
कुछ पाने की
ज़माने को कुछ कर दिखाने की..
पर उस चिंगारी को ऐसी हवा लगी
की सब कुछ साथ मेरे वो जला गयी
इक आग लगी तबाही की,
की बस थाम बंदूक,ज़मीन की दुहाई दी
खुदा बन गया में,अपने ही जहाँ का
जिसमे फूलवारियाँ तो थे, पर कोई फूल नही ..
किसी बचपन के खेल का कोई शोरगुल नही..
बस रंग ही रंग था चारो और..
ना नारंगी, ना पीला,
ना गुलाबी , ना नीला.
ऐसा हुआ उस गुलशन का हाल
की हर तरफ बस रंग था लाल ही लाल
बस लाल ही लाल
इक जुनून सवार था सर पे मेरे
की ना रिश्ते रहे , ना नाते रहे
छूटे वो बचपन के सारे साथी मेरे,
और ना साथ मेरे कोई दोस्त रहे
बस सन्नाटा ही सन्नाटा हे अब चारो ओर
ना कोई साथ मेरे और हे ना ज़माने का शोर
क्यू किया मेने ये सब, क्यू किए मेने वो सारे
काम
जान सकता नही अब, तो कैसे दू किसी को में ये इल्ज़ाम
वो में ही तो था जिसने चुने वो रास्ते
इक ऐसे ज़मीन के वास्ते
जो हे तेरी भी और हे मेरी भी
पीछे मुड़के देखता हूँ तो
सोचता हे मॅन मेरा
क्यू में समझ ना पाया ये
क्यू नही किसी ने बताया ये
कि हे तू भी इंसान
था में भी इंसान